दक्षिण भारत में भाजपा का प्रवेश द्वार बन चुके कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान तो 12 मई को होगा, लेकिन चुनावी बिसात बिछ चुकी है। दक्षिण भारत में सत्ता सिंहासन सौंपने वाले इस पहले राज्य को भाजपा ने किस तरह खुद ही गंवा दिया, वह इतिहास है, और एक सबक भी। भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते जिन येदियुरप्पा को भाजपा ने मुख्यमंत्री पद से हटाया (जो बाद में बगावत कर अलग दल बनाने तक चले गये), वही एक बार फिर भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। ऐसा नहीं है कि तब येदियुरप्पा के दामन पर दाग साबित हो गये थे या अब वह बेदाग घोषित हो चुके हैं। बात इतनी-सी है कि अति आत्मविश्वास की शिकार भाजपा को, कांग्रेस के हाथों सत्ता गंवाने के बाद समझ आ गया कि बिना जनाधार वाले नेताओं को साथ लिये उत्तर भारत से इतर शेष देश में सत्ता पा सकना उसके लिए अभी संभव नहीं है। बेशक अलग तरह की राजनीतिक संस्कृति की वाहक होने का दम भरने वाली भाजपा का न सिर्फ चेहरा एक बार फिर वही है, बल्कि बेल्लारी के बदनाम रेड्डी बंधुओं से निकटता समेत चरित्र भी पहले जैसा ही है। जाहिर है कि फिर चाल भी वही होगी।ऐसे में अहम सवाल यही है कि क्या सत्ता की खातिर सब कुछ ताक पर रखने के बाद भी भाजपा दक्षिण भारत में अपना पहला सत्ता सिंहासन वापस हासिल कर पायेगी? बेशक यह आसान लक्ष्य नहीं है। पिछले पांच साल से कांग्रेस कर्नाटक की सत्ता पर काबिज है। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने सुशासन की कोई मिसाल कायम कर दी है, लेकिन इस बात के लिए उसकी प्रशंसा अवश्य की जा सकती है कि उसने पूर्व जनता दली सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा करने का अवसर दिया है। इस बात का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि 40 साल में सिद्धारमैया कर्नाटक में कार्यकाल पूरा करने वाले पहले मुख्यमंत्री हैं। 40 साल में 15 मुख्यमंत्रियों का आंकड़ा बताता है कि कर्नाटक किस हद तक राजनीतिक अस्थिरता का शिकार रहा है। बेशक उसके लिए कांग्रेस और जनता दल ही ज्यादा जिम्मेदार रहे। परिणामस्वरूप भाजपा सत्ता की राह बनाने में सफल हो गयी। सिद्धारमैया का एक से अधिक सीटों से चुनाव लड़ना उनके आत्मविश्वास का प्रतीक बताया जा सकता है, दरअसल यह उनके पुत्र मोह का परिणाम भी है। सुरक्षित मानी जाने वाली वरुणा विधानसभा सीट बेटे यथींद्र के लिए छोड़कर सिद्धारमैया अपनी पुरानी सीट चामुंडेश्वरी चले गये हैं जहां उन्हें अपने पुराने दल-जनता दल (सेक्यूलर) से कडे मुकाबले का सामना करना पड़ रहा है। नतीजतन अब वह एक और सीट बदामी से भी चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन वहां भाजपा ने बेल्लारी के असरदार बी. श्रीरामुलु को मैदान में उतार कर उनकी मुश्किलें बढ़ा दी हैं। इन चुनावी दांवपेचों से इतर भी सिद्धारमैया की राह आसान नहीं। बेशक लगभग 100 विधानसभा सीटों पर असर डाल सकने वाली राज्य की 18 से 20 प्रतिशत आबादी लिंगायत को अल्पसंख्यक धर्म का दर्जा देने तथा कर्नाटक के झंडे को पृथक मान्यता देने समेत सिद्धारमैया ने सत्ता की नैया पार लगाने के लिए हरसंभव दांव चला है, पर जमीनी हकीकत उनके अनुकूल नहीं है। पांच साल के शासन से उपजी सत्ता विरोधी भावना का परंपरागत तर्क तो उनके विरुद्ध जाता ही है, पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा के जनता दल (सेक्यूलर) ने भी जबरदस्त बिसात बिछायी है। सत्ता लालसा के लिए बदनामी के बावजूद जनता दल (सेक्यूलर) अतीत में भी किंग मेकर की भूमिका बखूबी निभा चुका है। इस बार भी अभी तक जो पांच प्रमुख चुनाव पूर्व सर्वेक्षण आये हैं, उनमें से चार ये संकेत दे रहे हैं कि किसी एक दल को बहुमत नहीं मिलेगा, विधानसभा त्रिशंकु होगी और जनता दल (सेक्यूलर) एक बार फिर किंग मेकर की भूमिका निभायेगा। उस भूमिका की क्या कीमत होगी, वह तो समय ही बतायेगा, लेकिन मायावती की बहुजन समाज पार्टी और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से गठबंधन कर जनता दल (सेक्यूलर) ने चुनावी बिसात गजब की बिछायी है। बेशक कछ सीटों पर यह गठबंधन भाजपा को भी नुकसान पहुंचायेगा, लेकिन चुनावी राजनीति की व्यावहारिक समझ यही बताती है कि भाजपा विरोधी मतों के इस बंटवारे से सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही होने वाला है। 224 सीटों वाली कर्नाटक विधानसभा में अकेले दम भाजपा को 126 सीटें देने वाले सी-फोर के सर्वेक्षण को अपवाद मान लें तो अन्य सर्वेक्षणों में भाजपा की अधिकतम सीटों की संख्या 95 तक ही पहंच रही है, जबकि कांग्रेस को अधिकतम 102 सीटें ही मिलने की संभावना जतायी गयी है। जाहिर है, सत्ता के दोनों प्रमुख दावेदार दलों को सरकार बनाने के लिए जनता दल (सेक्युलर) के समर्थन की दरकार होगी, जिसे इन सर्वेक्षणों में 25 से 40 तक सीटें मिलने की संभावना जतायी गयी है। क्षेत्रीय पहचान की आकांक्षा वाले छह क्षेत्रों में बंटे कर्नाटक में इन सर्वेक्षणों का सच तो 15 मई को ही पता चल पायेगा लेकिन देवगौडा सत्ता राजनीति में जबरदस्त सौदेबाज माने जाते हैं। इसलिए लगता नहीं कि वह अपने बेटे के लिए उपमुख्यमंत्री पद से कम पर मानेंगे, पर वह सब तो चुनाव के बाद की संभावनाएं हैं। फिलहाल तो नजरें चुनाव प्रचार के मुद्दों पर टिकी हैं। कहना नहीं होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अध्यक्ष अमित शाह के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भाजपा के स्टार प्रचारक होंगे, जो सिद्धारमैया सरकार के साथ ही कांग्रेस के राष्टीय नेतृत्व पर भी कड़े प्रहार करेंगे। उधर कांग्रेस का प्रचार अभियान अध्यक्ष राहुल गांधी तक ही सिमटे रहने की संभावना । सोनिया शायद ही जायें। कांग्रेस के मुख्य निशाने पर केंद्र की मोदी सरकार ही होगी क्योंकि कर्नाटक में उसकी अपनी सरकार है। ऐसे में राज्य के मुद्दे या तो जनता दल (सेक्यूलर) उभारेगा अथवा फिर मीडिया। अतीत में कांग्रेस और भाजपा, दोनों का दोस्त रह चुके जनता दल (सेक्यूलर) की अभी भी कितनी साख बची है, इसका फैसला भी इन चुनावों में हो जायेगा। दरअसल सत्ता केंद्रित राजनीति में अभी भी अंतिम बाजी मतदाताओं के ही हाथ रहती है, जो 12 मई को ही इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन का बटन दबाकर बतायेंगे कि अगली सरकार किसकी बनेगी और कैसे। सरकार जैसे भी बने, बनाने वाले दलों के हौसले बुलंद होंगे, जिसका असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी पड़ेगा। कर्नाटक के बाद इसी साल राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस-भाजपा के बीच सीधा मुकाबला होगा। तीनों ही राज्यों में भाजपा सत्तारूढ़ है।
राष्ट्रीय राजनीति भी तय